बंद कमरे, बैठक और गाँव की चोपाल में भ्रष्टाचार मिटाने के तरीको पर बहस हो रही है.
बुद्दिजीवी इसे पब्लिक का सपोर्ट पाने की और असली मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश बता रहे हैं.
आम आदमी इसे मंहगाई, बेरोजगारी, गरीबी और भ्रष्टाचार से मुक्ति के रस्ते के रूप में देख रहा है.
मीडिया इसे बेहतर मसाला मान कर समाचार परोसने में लगा है.
किचेन से लेकर खरीदारी तक अन्ना के आन्दोलन का असर दिख रहा है.
बच्चे स्कूल जाने में हीलाहवाली कर रहे है, मम्मी खाना बनाने में, पापा आफिस जाने में.
ऐसे में बासी सब्जी बन चुके बुजुर्गों का मार्केट मूल्य बढ़ गया है.
हर मोहल्ले और गाँव में बुजुर्गों से उनके ज़माने के किस्से सुने जा रहे है,
इन तमाम चीजों के बीच दिल में एक टीस सी उठती है,
जो हर बार की तरह जुबान तक आकर दम तोड़ देती है,
मगर फुसफुसाहट के साथ इतना सुनने में आता है-'जाके पैर न फटी बिवाई सो का जाने पीर पराई'
ये बात कहने वाला अब कोई नहीं, हर किसी को दर्द का एहसास है. सभी बदलाव चाहते है,
मैं देश में अपेक्षित बदलाव और युवा शक्ति को विकास के अनंत पथ पर अग्रसारित होने की कामना करता हू,
हमारा आने वाला कल बारिश की घनघोर घटा के बाद निकले सूरज की तरह चमकदार होगा, उसमे चन्द्रमा की तरह दाग नहीं होगा...