गुरुवार, 7 मई 2009

"गाँव की मिट्टी"

चाक चौबंद हो गयीं दीवारें,खिड़कियाँ भी बंद हो गयीं ।
हवा के झोंकों से आती खुशबुएँ भी अब मंद हो गयीं ।
कल तक महकता था आँगन,आज खुशबू भी नजरबन्द हो गयीं।
सिमट गया अपनेपन का दायरा,अब चौपालें भी बंद हो गयीं।
किसी का दुःख किसी की खुशियाँ बन गयीं।
अब तो गावों में लोरी भी बंद हो गयीं।
बरसों बाद लौटा गाँव तो मिटटी ने पूछा -क्या शहर में रोटियां मिलनी बंद हो गयीं ?
बेजुबान था मैं -क्योंकि मेरी जुबान ही बंद हो गयी.......

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