रविवार, 24 अक्तूबर 2010

"इंसानी आक्टोपस "

दुनिया के इस बाजार में हर कोई बिक रहा है.
फर्क इतना है कुछ घरों के अन्दर बिक रहे है, तो कुछ सरे राह.
मंजिल सबकी एक है, ज्यादा से ज्यादा खून चूसकर पैसे इकट्ठा करना.
ज्यादा से ज्यादा जिश्म का दिखावा करके पॉपुलर होना.
लाशों का ढ़ेर लगा हो कदमों के नीचे किसी को गम नहीं,
उन्हें पता है कि लाशें तो हर रोज जलती है, मगर वो लाशों के ढ़ेर पर खड़े है अर्थात वो जिन्दा है.
दिल तो हर रोज टूटता है, कभी बीबी की डांट पर तो कभी बॉस की झिड़की पर.
मगर असली दिल तो तब टूटता है, जब रोने का जी चाहे और आंखे पथरा जाएं.
कुछ इसी तरह रोने का मन होता है, जब दुनिया के दस्तूर की आड़ में लोग धोखा देकर मुस्कुराते है.
सर्वाइवल आॉफ दि फिटेस्ट के नाम पर मुस्कुराकर लहू चूसते हैं....
शायद इसीलिए इस दुनियां में रीयल आक्टोपस और भेड़िए खत्म होते जा रहे है.
उनकी जगह इंसान रूपी आक्टोपस और भेड़ियों ने ले ली है.

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