मंगलवार, 18 मई 2010

अपना शहर

आप महीनों बाद अपने शहर की सड़कों पर चला। ऐसा लगा जैसे बरसों बाद मां के आंचल की घनी छांव नसीब हुई है। सब कुछ भूलकर मैं चैन की नींद सोया। आंखें खुलने के बाद एक अनोखा तेज और स्फूर्ति अपने अंदर महसूस हुई। कदमों में मीलों चलकर थकने का एहसास नहीं था । आंखों में नई चमक थी। पेड़ों की पत्तियों और पंक्षियों के कलरव में नई ताजगी नया आकर्षण था। इतना मनोहारी दृश्य इससे पहले देखा नहीं या मेरी आंखों ने देख कर अनदेखा कर दिया था पता नहीं, मगर सच में आज अपने शहर में घूमने का एहसास शब्दों में बयां कर पाने में खुद को असफल महसूस कर रहा हूं......अपने शहर का अपनापन दुबारा पेट की खातिर शरहद को पार न करने की याचना कर रहा है। मगर हर बार की तरह इस बार भी मैं उसे जल्दी ही वापस आने का भरोसा दिलाकर निकल रहा हूं। मुझे पता है, वह मान जाएगा। मेरे जाने के बाद रोएगा, पेड़ की डालों से , पंक्षियों से मेरे साथ गुजारे गए पलों की यादें बांटेगा। तब तक गांव की तरफ आने वाली पगडंडी पर अपनी पलकें बिछाए रखेगा, जब तक मैं दुबारा उससे मिलने अपने गांव अपने शहर नहीं आ जाता॥

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